Sunday, January 10, 2016

Meri Khaatir

गुज़रे वक़्त के ज़ख्म थे कुछ... 
एक बीती रात का आँसू भी...
एक परबत जितनी दिल की पीर...
कुछ फरेब किस्मत के दिए...

छुपा रखे थे, मैंने...
यूँही...
कुछ आड़ी तिरछी लकीरों में...

बूँद बूँद कर बहा दिए सब...
हर धड़कन की, हर टूटी लड़ी...
इन नब्ज़ों पे कस दी...
कुछ पैबंदें...

कुरेद कुरेद के जोड़ लिया फिर...
एक पुल हो जैसे...
और एक लहू का दरिया...

एक आह भरी और....
चल निकले...
उस राह पे फिर... उस मोड़ पे फिर...
रोक आये थे जहाँ... 
हर लम्हे को...
एक बार फिर से... जीने के लिए...
कभी हो सके गर तो...

दूर थी बहुत मंज़िल...
और सांसें कम...
रूकती सी गई... क़दमों की थिरकन...
बैठ गए बन...
मील का पत्थर...

देखा करूँगा इन राहों को अब...
रुका, थके मुसाफिर सा...
आती जाती हर हलचल अब...
मेरी पलकें टटोलेंगी...
इंतज़ार होगातुम्हारा...
शायद... इन्तेहाँ तक...

तुम गुज़रो इस राह से...
जब भी... अगर...
तो ढूंढ लेना मेरे निशाँ...
एक चाक जिगर...
एक सूना पत्थर...

ढूँढना मुझको...
न सितारों में...
पर धूल सी उड़ती गुबारो में...
एक झलक तुम्हारी...
और मेरी रात ढले...

फिर चल देना तुम, अपनी रहगुज़र...
रुक न जाना...
मेरी खातिर...

तुम्हे चलना ही होगा...
अभी और...
मेरी खातिर...

~abhi

Monday, November 17, 2014

Har Ghazal

हर ग़जल में कुछ नयी रानाईयां रखते हैं हम
अपने फ़न में आपकी परछाईयाँ रखते हैं हम

ख्वाब में आती हैं अक्सर शोख सरगम की परी
नींद में बजती हुई शहनाईयां रखते हैं हम

बेक़रारी, बेख़याली, बेखुदी, बेगानगी
हर तरह की आजकल तन्हाईयाँ रखते हैं हम

ज़ेहन--दिल पर छा गया है यूँ तस्सवुर आपका
रूह से साँसों तलक़ गहराईयाँ रखते हैं हम

कल तलक़ तो अजनबी थे शहर में अपने मगर
बारहाँ हर शहर में रुसवाईयाँ रखते हैं हम

Friday, March 21, 2014

Ghar

शब भर का ठिकाना तो, एक छत के सिवा क्या है…
क्या वक़्त पे घर जाना, क्या देर से घर जाना…

जब भी नज़र आओगे, हम तुमको पुकारेंगे…
चाहो तो ठहर जाना, चाहो तो गुज़र जाना…

Raat

धुंध सी हटी,
उजालों कि थी आहट,
और फिर जल उठा सब…
सुबह हमारी तो,
क़यामत बन बिखरती है…

फिर एक खेल सा,
चलता है दिन भर…
मोहरे कि तरह दिखता हूँ मैं,
जैसे बिसात लगा रखी है,
ज़िन्दगी ने,
ज़िन्दगी भर के लिए…

सुलगती जाती हैं शामें,
अधजली सी रात,
सिसकियाँ भरती आवारगी…
और मुझपे हंसती हुई,
मेरी बेचारगी…

मातम सा मनाते हैँ हम लोग…
हर गुज़रती रात…
बीत के भी नहीं बीत पाती…
आज भी…

मैं फिर जी तो उठा हूँ,
पर दिल में कुछ,
मर सा गया है...
इस बार...

~abhi

Friday, October 11, 2013

Maaye Ni Maaye

माये नी माये...
मेरे गीतां दे नैणा विच...
बिरहों दी रड़क पवे...
अद्दी अद्दी राती उठ...
रोण मोये मितरां नूं...
माये सानूं नींद न पवे...

Listen, mother
my songs are eyes
stinging with grains of separation.
In the middle of the night
they wake and weep for dead friends.
Mother, I cannot sleep.

भें भें सुगंधियां च...
बणा फेहे चानन्नी दे...
तांवी साडी पीड़ न सवे...
कोसे कोसे साहां दी में...
करां जे टकोर माये...
सगों साहणु खाण नूं पवे...


Upon them I lay strips of moonlight
soaked in perfume
but the pain does not recede.
I foment them
with warm sighs
yet they turn on me ferociously.

आपे नि मैं बालड़ी...
मैं हाले आप मत्तां जोगी...
मात्त केड़ा एस नूं दवे...
आख सूं नि माये इहनूं...
रोवे बुल चिथ के नी...
जग किते सुन न लवे...

I am still young
and need guidance myself.
Who can advise him?
Mother, would you tell him?
To clench his lips when he weeps
or the world will hear him cry.

आख माय्रे अद्दी अद्दी...
रातीं मोये मित्रां दे...
उच्ची उच्ची नां ना लवे...
मते साडे मोयां पिछे...
जग ए सड़िकरा नी...
गीतां नुं वी चंदरा कवे...


Mother, tell him not to
call out the name of his dead friends
so loudly in the middle of the night.
When I am gone, I fear
that this malicious world
will say that my songs were evil.

Saturday, December 29, 2012

Saal

एक बेबस सी रात, सहमी सी...
हवा का नाम-ओ-निशाँ तक नहीं था...
साँस लेने को भी कम पड़ जाए...
इतनी कमतर...
पर ज़ेहन में तूफ़ान सा उठा था...
या शायद गुज़रे तूफ़ान की बदहवासी...
अब तक हावी होगी...
चला गया... खिलखिलाकर मुझ पर...
कई दफ़ा टूटे हैं आसमान...
बारहा क़यामत गुज़रती है... 

और हर बार...
बस मैं पीछे रह जाता हूँ...
जैसे किसी टूटे फूटे मकाँ में...
एक पल पल बिखरता इंसान...

हौंसला सा भी कुछ... उभरता है, कभी कभी...
चलो जोड़ लेते हैं... फिर से, सब कुछ...
इस आशियाने को...
हर बिछड़े आशनाओं को...

पर अब मन थक सा गया है...
इन तूफानों को...
कागजों और लफ़्ज़ों में कैद करता करता...
बस अब तो, बिखर के फ़ना हो जाने दो...
सुलगता हुआ न रखो... बुझ जाने दो...
चले जाने दो...
अब तो डायरी के सारे पन्ने ही...
एक जैसे मालूम होते हैं...
सब के सब...
बिलकुल कोरे...

जैसे मेरे हर ख़याल की तरह...
जैसे हर गुज़रे साल की तरह...

~abhi

Tuesday, November 13, 2012

Is Se Pahle

अधजले ख़्वाबों के टुकड़े...
कुछ कतरे आसमानों के...
बिखरे से पड़े हैं... 
जाने कब से...
चुभेंगे मेरी आँखों को... टूटे काँच की तरह...
अब चुन भी लो न, इन्हें...
नब्ज़ डूब जाए, इस से पहले...

एक नज़्म मीर की हो...
कुछ मिसरे दाग के जैसे...
पढ़ देना मेरे लिए...
कुछ सुखन मेरे ही...
या सिरहाने रख देना...
वो लोरी जो, माँ ने सुनाई थी...
नींद आ जायेगी मुझको...
नब्ज़ डूब जाए, इस से पहले...

इस से पहले, की ये रात...
उजाले को डस ले...
रहगुज़र ख़त्म हो, सफ़र से पहले...
किरणें जला दे शबनम को...
धरा से पहले...
हर ज़ख्म को भर जाने दो...
इस ज़हर को उतर जाने दो...
नब्ज़ डूब जाए, इस से पहले...

~abhi

Monday, November 12, 2012

Muntazir

तकती हैं रहगुज़र उसकी...
मुन्तजिर ये आँखें कब से...
पूछ लेती हैं अजनबियों से...
कोई दिखा था क्या...
इन राहों की ओर आता हुआ...
कोई ख़त सा ही दे दिया हो... शायद...
जेबें टटोलना एक बार...
कितने दिन गुज़र गए... अब तो...

मेरे बिन इतने दिन, तो कभी गुज़ारे नहीं उसने...

बदलते मौसमों के साथ...
आदतें भी बदल जाती हैं क्या...
थोड़ी देर और देख लेता हूँ...
क्या पता...
अब किसी बात की ज़ल्दबाज़ी भी कहाँ है...
दो ही तो लम्हे हैं...
पहला भी इंतज़ार था...
आखिरी भी... वही...

~abhi

Thursday, November 8, 2012

Middle Class

ज़ख्मों के बस रंग बदले हैं... 
कैफियत, किस्मत वैसे के वैसे ही हैं आज भी...
दिन तो इतनी जल्दी बीत जाता है... 
जैसे महीनों से गर्मी सहती धरती ने...
बारिश की पहली बूँद को निगल लिया हो...
और रात हमारी, बिन बुलाई मेहमान हो जैसे... 
न कह के आती है... 
और न सह कर गुज़र होती है...

आज की शाम भी... 
बस कुछ ऐसे ही चली आई थी...
दफ्तर से निकले तो आये... 
पर दिमाग अब भी वहीँ उलझा सा रहा...
आँखें एक ऑटो की तलाश में जुटी रहीं...
एक गुज़रा भी पास से,
और रुका भी... 
पर 70 50 की कहा सुनी में बात न बनी...
दिमाग खुद को देर होने के लिए कोस रहा था...
पर दिल ने कहा "इंतज़ार और सही"...
कोई एक भूला भटका दिख जाए शायद...

एक और शक्श पास आके रुका... 
कुछ कहने सुनने की जरुरत न थी...
चेहरे के हाव भाव ने ही बता दिया... 
तलाश उसे भी थी...
एक दो सवाल जवाब हुए... 
तो मंजिल भी एक निकल आई...
अल्फाजों की अदला बदली में... 
अपनी मिटटी की धूल भी साफ़ हो गयी...

उम्रदराज़ था... 
जैसे ज़िन्दगी ने बहुत कुछ सिखा दिया हो...
जल्दबाजी थी उसे... 
घर पे होगा कोई इंतज़ार करता हुआ शायद... 
बिन कहे ही वाहन और पैसे बाँट लेने का फैसला हुआ...
और चल भी पड़े...
सड़कों की हालत पे तरस खाया... 
महंगाई की बात हुई...
नौकरी से मिले ज़ख्म भी उजागर हुए...
6 साल में क्या क्या बदला है इन गलियों में... इस शहर में... 
बताया मैंने उसे...
इस शहर ने मुझे कितना बदल दिया है... 
ये सच छुपा लिया बस...

अचानक ही वो पूछ बैठा... 
"माँ के गहने बेच के पढ़ाई की है?"...
मैं स्तब्ध रह गया... 
जैसे कुछ ठीक से सुना नहीं हो मैंने... 
ऐसे बेबाक सवाल की उम्मीद नहीं थी...
मेरे चेहरे की शून्यता और जवाब न मिलने पर कहा उसने...
"फिर पिताजी ने ज़मीन बेची होगी"...

सिर्फ सवाल था... 
जवाब की उम्मीद नहीं थी उसे...
मेरे पास जवाब भी नहीं था शायद...
उसने भी टॉपिक बदल दिया... 
किराया पूछ लिया मकान का...
फिर एक लम्बी सी खामोशी...
हमारी ज़िन्दगी की सच्चाई और हमारे ख्वाहिशों में...
एक कभी न खतम होने वाला... 

बैर है... दूरियां हैं...
हम उम्र भर सफ़र करते रहे है... 
और भी बहुत दूर जाना है...
पर न ये दूरी कम हुई... 
न ये जूनून कम होता है...

जाते जाते उसने बस इतना ही पुछा... 
"योर गुड नेम पलीज़?"
मैं बस मुस्कुराया और ये कह गया...
"Middle Class"...

~abhi

Tuesday, October 23, 2012

Suna Hai

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं...
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं...

सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से...
सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं... 

सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उसकी...
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं... 

सुना है उसको भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़...
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं...

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं...
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं...

सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है...
सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं... 

सुना है हश्र हैं उसकी ग़ज़ाल सी आँखें...
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं...

सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं...
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं...

सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उसकी...
सुना है शाम को साये गुज़र के देखते हैं...

सुना है उसकी सियाह चश्मगी क़यामत है... 
सो उसको सुरमाफ़रोश आह भर के देखते हैं...

सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं...
सो हम बहार पर इल्ज़ाम धर के देखते हैं...

सुना है आईना तमसाल है जबीं उसकी...
जो सादा दिल हैं उसे बन सँवर के देखते हैं...

सुना है जब से हमाइल हैं उसकी गर्दन में...
मिज़ाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं... 

सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में...
पलंग ज़ाविए उसकी कमर के देखते हैं...

सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं...
के फूल अपनी क़बायेँ कतर के देखते हैं... 

वो सर-ओ-कद है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं... 
के उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं... 

बस एक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का...
सो रहर्वान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं... 

सुना है उसके शबिस्तान से मुत्तसिल है बहिश्त...
मकीन उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं...

रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं... 
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं...

किसे नसीब के बे-पैरहन उसे देखे...
कभी-कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं...

कहानियाँ हीं सही सब मुबालग़े ही सही...
अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं... 

अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जायेँ... 
फ़राज़ आओ सितारे सफ़र के देखते हैं...