Monday, November 28, 2011

Waah Waah

एक ख्वाब सा कुछ... रखा था...
उन चमकती आँखों में...
जाने कितने दिनों से...

अब धीमे धीमे पिघल सा रहा है...
पलकों के किनारे से...
नमी कम होती जाती है इन आँखों की...
समंदर भी सेहरा हो जाते हैं न...

शायद ये ख्वाब भी... किसी दिन...
अल्फाजों की कफ़न पहन लेगा...

काफिये की दो गज़ ज़मीन मिलेगी इसे...
चाहने वाले भी तो रो पड़ेंगे न...
वाह वाह कहके...

-abhi

Sunday, November 13, 2011

45 Days

45 दिन...
कुछ अजीब तरह से गुजरे...ये दिन...
तय कर पाना मुश्किल लगा...
बहुत ही ज्यादा थे... या काफी कम...

सब कुछ अचानक सा ही तो हुआ न...
जैसे ज़िन्दगी की ट्रेन ने बिना बताये ही...
ट्रैक बदल लिया हो...
Building 34 से... Route 66 तक...

बस रास्ता ही बदला सा रहा...
बेबसी भी उतनी ही थी...
अकेलापन भी वैसा ही था... जाना पहचाना सा...
जैसे एक ही बेचारगी के... दो चेहरे हों...
बेवफा सही.. पर ज़िन्दगी हर बार...
कुछ नया ही सिखा जाती है...

दो अलफ़ाज़ "दूरियां" और "फासले"...
कैसे एक जैसे ही लगते है न... पर फर्क होता है... शायद...

दूरियों से फासलों का पता चलता है...
दूरियां तो अब आयीं थी...
पर फासला तो हमेशा उतना ही रहा होगा... शायद...

आँखों को दिखता हुआ चमकता सितारा भी...
क्या जाने... कब का ही टूट चुका हो...
अब जो बाकी रहा है... वो बस...
दिन पर दिन कम होती जाती रौशनी...

इन गुजरे दिनों में भी...
ज़ेहन में भी कुछ बुझ सा गया है...
चराग़ सा जलता हूँ... तो तपिश कम होती जाती है...
अलाव बन जाऊं तो...


सुलगना है देर तक...


~abhi