ज़ख्मों के बस रंग
बदले हैं...
कैफियत, किस्मत वैसे के वैसे ही हैं
आज भी...
दिन तो इतनी जल्दी बीत जाता है...
जैसे महीनों से
गर्मी सहती धरती ने...
बारिश की पहली बूँद
को निगल लिया हो...
और रात हमारी, बिन
बुलाई मेहमान हो जैसे...
न कह के आती है...
और न सह कर गुज़र
होती है...
आज की शाम भी...
बस कुछ ऐसे ही चली
आई थी...
दफ्तर से निकले
तो आये...
पर दिमाग अब भी
वहीँ उलझा सा रहा...
आँखें एक ऑटो की
तलाश में जुटी रहीं...
एक गुज़रा भी पास
से,
और रुका भी...
पर 70 50 की कहा
सुनी में बात न बनी...
दिमाग खुद को देर
होने के लिए कोस रहा था...
पर दिल ने कहा
"इंतज़ार और सही"...
कोई एक भूला भटका
दिख जाए शायद...
एक और शक्श पास
आके रुका...
कुछ कहने सुनने
की जरुरत न थी...
चेहरे के हाव भाव
ने ही बता दिया...
तलाश उसे भी थी...
एक दो सवाल जवाब
हुए...
तो मंजिल भी एक
निकल आई...
अल्फाजों की अदला
बदली में...
अपनी मिटटी की धूल
भी साफ़ हो गयी...
उम्रदराज़ था...
जैसे ज़िन्दगी ने
बहुत कुछ सिखा दिया हो...
जल्दबाजी थी उसे...
घर पे होगा कोई
इंतज़ार करता हुआ शायद...
बिन कहे ही वाहन
और पैसे बाँट लेने का फैसला हुआ...
और चल भी पड़े...
सड़कों की हालत
पे तरस खाया...
महंगाई की बात हुई...
नौकरी से मिले ज़ख्म
भी उजागर हुए...
6 साल में क्या
क्या बदला है इन गलियों में... इस शहर में...
बताया मैंने उसे...
इस शहर ने मुझे
कितना बदल दिया है...
ये सच छुपा लिया
बस...
अचानक ही वो पूछ
बैठा...
"माँ के गहने
बेच के पढ़ाई की है?"...
मैं स्तब्ध रह गया...
जैसे कुछ ठीक से
सुना नहीं हो मैंने...
ऐसे बेबाक सवाल
की उम्मीद नहीं थी...
मेरे चेहरे की शून्यता
और जवाब न मिलने पर कहा उसने...
"फिर पिताजी
ने ज़मीन बेची होगी"...
सिर्फ सवाल था...
जवाब की उम्मीद
नहीं थी उसे...
मेरे पास जवाब भी
नहीं था शायद...
उसने भी टॉपिक बदल
दिया...
किराया पूछ लिया
मकान का...
फिर एक लम्बी सी
खामोशी...
हमारी ज़िन्दगी
की सच्चाई और हमारे ख्वाहिशों में...
एक कभी न खतम होने
वाला...
बैर है... दूरियां
हैं...
हम उम्र भर सफ़र
करते रहे है...
और भी बहुत दूर
जाना है...
पर न ये दूरी कम
हुई...
न ये जूनून कम होता
है...
जाते जाते उसने
बस इतना ही पुछा...
"योर गुड नेम
पलीज़?"
मैं बस मुस्कुराया
और ये कह गया...
"Middle
Class"...
~abhi
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