Monday, November 17, 2014

Har Ghazal

हर ग़जल में कुछ नयी रानाईयां रखते हैं हम
अपने फ़न में आपकी परछाईयाँ रखते हैं हम

ख्वाब में आती हैं अक्सर शोख सरगम की परी
नींद में बजती हुई शहनाईयां रखते हैं हम

बेक़रारी, बेख़याली, बेखुदी, बेगानगी
हर तरह की आजकल तन्हाईयाँ रखते हैं हम

ज़ेहन--दिल पर छा गया है यूँ तस्सवुर आपका
रूह से साँसों तलक़ गहराईयाँ रखते हैं हम

कल तलक़ तो अजनबी थे शहर में अपने मगर
बारहाँ हर शहर में रुसवाईयाँ रखते हैं हम

Friday, March 21, 2014

Ghar

शब भर का ठिकाना तो, एक छत के सिवा क्या है…
क्या वक़्त पे घर जाना, क्या देर से घर जाना…

जब भी नज़र आओगे, हम तुमको पुकारेंगे…
चाहो तो ठहर जाना, चाहो तो गुज़र जाना…

Raat

धुंध सी हटी,
उजालों कि थी आहट,
और फिर जल उठा सब…
सुबह हमारी तो,
क़यामत बन बिखरती है…

फिर एक खेल सा,
चलता है दिन भर…
मोहरे कि तरह दिखता हूँ मैं,
जैसे बिसात लगा रखी है,
ज़िन्दगी ने,
ज़िन्दगी भर के लिए…

सुलगती जाती हैं शामें,
अधजली सी रात,
सिसकियाँ भरती आवारगी…
और मुझपे हंसती हुई,
मेरी बेचारगी…

मातम सा मनाते हैँ हम लोग…
हर गुज़रती रात…
बीत के भी नहीं बीत पाती…
आज भी…

मैं फिर जी तो उठा हूँ,
पर दिल में कुछ,
मर सा गया है...
इस बार...

~abhi