Friday, September 17, 2010

Zarra-e-Benishaan

तेरे सिवा क्या जाने कोई, दिल की हालत रब्बा...
सामने तेरे गुजरी मुझ पर, कैसी क़यामत रब्बा...

मैं वो किस तरह से करूं बयां... जो किये गए हैं सितम यहां...
सुने कौन मेरी ये दास्तां... कोई हमनशीं हैं न राज़दां...

जो था झूठ वो बना सच यहाँ... नहीं खोली मैंने मगर जुबां...
ये अकेलापन, ये उदासियाँ... मेरी जिंदगी की हैं तर्जुमाँ...

मेरी ज़ात ज़र्रा-ए-बेनिशां... मेरी ज़ात ज़र्रा-ए-बेनिशां...

कभी सूनी सुबह में घूमना... कभी उजड़ी शामों को देखना...
कभी भीगी आँखों से जागना... कभी बीते लम्हों को सोचना...

मगर एक पल है उम्मीद का... है मुझे खुदा का जो आसरा...
न ही मैंने कोई गिला किया... न ही मैंने दी हैं दुहाईयां...

मेरी ज़ात ज़र्रा-ए-बेनिशां... मेरी ज़ात ज़र्रा-ए-बेनिशां...

मैं बताऊँ क्या मुझे क्या मिले... मुझे सब्र ही का सिला मिले...
किसी याद ही की रिदा मिले... किसी दर्द ही का सिरा मिले...

किसी ग़म की दिल में जगह मिले... जो मेरा है वो मुझे आ मिले...
रहे शाद यूँ ही मेरा जहां... के यकीं में बदले मेरा गुमां...

मेरी ज़ात ज़र्रा-ए-बेनिशां... मेरी ज़ात ज़र्रा-ए-बेनिशां...