Sunday, February 13, 2022

Peerzada Qasim

 

ऐसे तो हो न पाएगी ग़म में सुपुर्दगी की बात...
किस्सा-ए-ग़म किसी का था, आपने की किसी की बात...

हम सा है ज़ूद रंज कौन, बाग़ में तर्क-ए-इश्क़ के...
हमने तो वो भी दिल पे ली, जो थी हंसी हंसी की बात...

कैसी बिसात उलट गयी, वक़्त की दार-ओ-गीर में...
रस्म सी बनकर रह गयी, कल थी जो दोस्ती की बात...

तीरा-शबी के बाब में, मोहर-ब-लब खड़े थे सब...
एक हम ही थे जिसने की बज़्म में रौशनी की बात...

उसने कहा की एक नज़र अपनी तरफ भी डाल ले...
मुझसे मुझे मिला गयी, आज एक अजनबी की बात...

इश्क़ सबात-ए-क़ायनात, इश्क़ ही रौनक-ए-हयात...
हमने भी गुफ्तगू के बाद, छेड़ दी फिर उसी की बात...

हमने तवील गुफ्तगू, ताबिश-ए-ज़िन्दगी पे की...
याद नहीं रहा हमें, करनी थी शायरी पे बात...

~पीरज़ादा क़ासिम

रुसवाई का मेला था, सो मैंने नहीं देखा…
अपना ही तमाशा था, सो मैंने नहीं देखा…

उस ख़्वाब-ए-तमन्ना की ताबीर न थी कोई...
बस ख़्वाब-ए-तमन्ना था, सो मैंने नहीं देखा...

नए रंग ये दुनिया का, मंज़र था हसीँ लेकिन...
अंदेशा-ए-फ़र्दा था, सो मैंने नहीं देखा...

मुझ आईना-गर को भी एक पैकर-ए-बेचेहरा...
आईना दिखाता था, सो मैंने नहीं देखा…

~पीरज़ादा क़ासिम

चराग़ हूँ कब से जल रहा हूँ मुझे दुआओं में याद रखिए...
जो बुझ गया तो सहर-नुमा हूँ मुझे दुआओं में याद रखिए...

वो बात जो आप कह न पाए मेरी ग़ज़ल में बयाँ हुई है... 
मैं आप का हर्फ़-ए-मुद्दआ हूँ मुझे दुआओं में याद रखिए...

ये दौर-ए-आशोब-ए-दोस्ती है मगर मेरा हौंसला सलामत...
मैं सब के बारे में सोचता हूँ, मुझे दुआओं में याद रखिए...

ग़ुबार हूँ आप चाहे ग़ाज़ा बनाएँ या ज़ेर-ए-पा बिछा लें...
मैं कब से रक़्साँ हूँ थक चुका हूँ मुझे दुआओं में याद रखिए...

बहुत ही शाइस्तगी से हर लहज़ा डूबती इक सदा की सूरत...
मैं ख़ल्वत-ए-जाँ में बुझ रहा हूँ मुझे दुआओं में याद रखिए...

बला से ये राह-ए-शौक़ मेरी न हो सकी पर तुम्हारी ख़ातिर... 
मिसाल-ए-नक़्श-ए-क़दम बिछा हूँ मुझे दुआओं में याद रखिए...

~पीरज़ादा क़ासिम

दुनियादारी खूब नहीं थी, ठीक किया इंकार किया...
मगर ये कैसी रविश बना ली, यानी यही हर बार किया...

अपनी तबाही भी अपनी थी, मिन्नतें गैर उठाते क्यों...
पहले सारे वार बचाये, और फिर खुद पर वार किया...

अगर तमाशा लफ़्ज़ों-बयाँ का ख़त्म, तो क्या इज़हार भी ख़त्म...
हमने खामोशी को उकसाया, फिर उसने इज़हार किया...

इश्क़ में अव्वल-ओ-आखिर कैसा, इश्क़ तसलसुल ज़ीस्त का है...
बस ये जानो इश्क़ किया, और आखिरी पहली बार किया...

सरमदी इश्क़ हो, या हो मंसूरी, जो है सज़ा वो एक सी है...
हमने मगर इस बाब में, खुद को अंदर से संसार किया...

~पीरज़ादा क़ासिम

अक्स के खेल में शरीक़, जो भी, था राब्ते में था...
वो भी जो आईना न था, वो भी, जो आईने में था...

मेरी तलब में तो कई, दस्त-ए-बलां थे सरगरां...
और मैं वो सफ़र-नसीब, जो अभी रास्ते में था...

ये जो ख़ुशी के साथ साथ, लहर रही मलाल की...
ये मेरी कैफ़ियत न थी, ये मेरे ज़ाइचे में था...

~पीरज़ादा क़ासिम

कैफ़ियत - {narrative}
ज़ाइचे - {astrological chart}