Friday, March 21, 2014

Ghar

शब भर का ठिकाना तो, एक छत के सिवा क्या है…
क्या वक़्त पे घर जाना, क्या देर से घर जाना…

जब भी नज़र आओगे, हम तुमको पुकारेंगे…
चाहो तो ठहर जाना, चाहो तो गुज़र जाना…

Raat

धुंध सी हटी,
उजालों कि थी आहट,
और फिर जल उठा सब…
सुबह हमारी तो,
क़यामत बन बिखरती है…

फिर एक खेल सा,
चलता है दिन भर…
मोहरे कि तरह दिखता हूँ मैं,
जैसे बिसात लगा रखी है,
ज़िन्दगी ने,
ज़िन्दगी भर के लिए…

सुलगती जाती हैं शामें,
अधजली सी रात,
सिसकियाँ भरती आवारगी…
और मुझपे हंसती हुई,
मेरी बेचारगी…

मातम सा मनाते हैँ हम लोग…
हर गुज़रती रात…
बीत के भी नहीं बीत पाती…
आज भी…

मैं फिर जी तो उठा हूँ,
पर दिल में कुछ,
मर सा गया है...
इस बार...

~abhi