गुज़रे वक़्त के ज़ख्म थे कुछ...
एक बीती रात का आँसू भी...
एक परबत जितनी दिल की पीर...
कुछ फरेब किस्मत के दिए...
छुपा रखे थे, मैंने...
यूँही...
कुछ आड़ी तिरछी लकीरों में...
बूँद बूँद कर बहा दिए सब...
हर धड़कन की, हर टूटी लड़ी...
इन नब्ज़ों पे कस दी...
कुछ पैबंदें...
कुरेद कुरेद के जोड़ लिया फिर...
एक पुल हो जैसे...
और एक लहू का दरिया...
एक आह भरी और....
चल निकले...
उस राह पे फिर... उस मोड़ पे फिर...
रोक आये थे जहाँ...
हर लम्हे को...
एक बार फिर से... जीने के लिए...
कभी हो सके गर तो...
दूर थी बहुत मंज़िल...
और सांसें कम...
रूकती सी गई... क़दमों की थिरकन...
बैठ गए बन...
मील का पत्थर...
देखा करूँगा इन राहों को अब...
रुका, थके मुसाफिर सा...
आती जाती हर हलचल अब...
मेरी पलकें टटोलेंगी...
इंतज़ार होगातुम्हारा...
शायद... इन्तेहाँ तक...
तुम गुज़रो इस राह से...
जब भी... अगर...
तो ढूंढ लेना मेरे निशाँ...
एक चाक जिगर...
एक सूना पत्थर...
ढूँढना मुझको...
न सितारों में...
पर धूल सी उड़ती गुबारो में...
एक झलक तुम्हारी...
और मेरी रात ढले...
फिर चल देना तुम, अपनी रहगुज़र...
रुक न जाना...
मेरी खातिर...
तुम्हे चलना ही होगा...
अभी और...
मेरी खातिर...
~abhi
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