Sunday, July 25, 2010

Ruka sa Ek Lamha ~ Eternity

रुका सा... एक लम्हा...

वक़्त हमेशा एक सा नहीं रहता... मौसम बदल जाते हैं, वक़्त के साथ लोग बदल जाते हैं...
शायद सब कुछ ही बदल जाता है...

पर कुछ एक रिश्ते कभी नहीं बदलते... ता उम्र वैसे ही बने रहते हैं... 
वही खुलूस... वही कशिश...

तुमसे मेरा रिश्ता भी कुछ ऐसा ही तो हैं ना... जैसा किसी सूखे फूल का पुरानी किताब से...
हाँ.. बिलकुल ऐसा ही...

फूल अब अपनी खुशबू खो चुका है, मुरझा सा गया है... और अब वो पहले वाला सुर्ख रंग भी तो न रहा...
पर अब भी उतना ही जिंदा जान पड़ता है... जैसे अभी अभी खिला हो...

शायद अब वो ये समझ चुका है की... यही उसकी किस्मत है... यही उसका आखिरी ठिकाना...
उसे इसी तरह खो जाना था...

पर जाने क्यों, हर नफस, उसे ये एहसास हुआ करता है... की वो अपनी ही किसी अमानत क साथ है... सुरक्षित है...
दो पन्नो में कैद... मगर हिफाज़त से... सुकून क साथ...

हमारी कहानी भी तो ऐसी ही है न...
कितने सारे लम्हे हैं न, हमारी जिंदगी की किताब में... काफी सारे ख़ुशी भरे... कुछ ग़म में लिपटे... 
कुछ तो अब धुंधले से हो रखे हैं... कुछ आज भी एकदम तरो-ताज़ा... जैसे अभी की बात हो...

याद है तुम्हे, जब तुम हर रोज़ टकटकी लगाए सूरज को डूबता देखा करती थी... और मैं इस इंतज़ार में रहता था...
के कब तुम्हारी ये बच्चो जैसी हरकत ख़त्म हो... और हम वापस लौट सकें...
अब सोचता हूँ, की मुझे किस बात की जल्दी रहती थी... ऐसा क्या था उस डूबते सूरज में... जो मुझे तब नहीं दिखा... 
तुम से ही पूछ लेता शायद...
अब समझ आया है तो देर हो चुकी है... अब सिर्फ मैं हूँ और ये डूबता सूरज...

एक वो दिन भी था ना... जब किसी लतीफे पे हँसते हँसते तुम रो पड़ी थी... और जब तुम्हारा रोना बंद हुआ... तो हम फिर हंस पड़े...
न जाने कितनी देर तक... हँसते रहे...
उन ठहाकों की गूँज अब भी सुनाई पड़ती है... कभी कभी... मद्धम सी... मगर देर तक...

फिर जाने कैसे सब कुछ बदल सा गया... जिंदगी कभी वार्निंग भी तो नहीं देती न...
तुमने जाने की बात कर दी...

अब मैं थक सा गया हूँ... जाने कई सालों से... वहीँ खोया सा... गुमनाम...
दो लम्हों की जंजीर से जकड़ा हुआ...

एक लम्हा वो था...
जब मैं तुम्हे जाता हुआ देख रहा था... एक उम्मीद भी थी... के शायद तुम पलट के देखोगी... शायद.. वापस आ जाओगी...
पर तुम नहीं आयीं... खो गयी तुम... उस कोहरे में कहीं...

एक उसके बाद का लम्हा...
जो मेरे लिए... कभी ख़त्म ही नहीं हुआ...

--abhi

Apna Sach ~ Reality

अपना सच 

मैंने खुद को जलते हुए देखा है...
वीरान... अजनबी सी... राहों पे चलते हुए देखा है...

इन रास्तों पे बिछी हुई... ये पीले, सूखे पत्तों की बेनूर सी चादर...
मेरे पैरों तलें कुचले जाते हुए ये पत्तें, एक अजीब सी आवाज़ करते हैं...
जैसे दर्द से तड़प रहें हो...

नहीं... ऐसा नहीं है शायद... ये तो अब बेजान हो चुके हैं... ये दर्द महसूस नहीं कर सकते...
हर एहसास से दूर हो चुके हैं ये सब...

सोचता हूँ... कभी ये सारे पत्तें हरे रहे होंगे... कितना मुस्कुराया होगा वो दरख़्त इन्हें पाकर...
जाने कितने दिनों तक... ये उस पेड़ की जान और पहचान बनकर रहे होंगे...

पर आज अपना अस्तित्व खो चुके हैं... क्या रोया होगा वो पेड़ इन्हें खोकर...
क्या रोता है आस्म़ा कभी... अपने एक सितारे के टूटने पर...

शायद हाँ... किसी अपने के खो जाने पर दर्द तो होता है... ना...
पर ये जख्म ता उम्र, नहीं रहते... भर जाते हैं... कुछ दिनों बाद... अपने आप...

शायद नहीं... इतनी भीड़ में एक कोई खो भी गया तो क्या फर्क पड़ता है...
बहुत पत्तें हैं... अभी दरख़्त की बाहों में... बहुत सितारे अब भी आसमान को सजाते रहेंगे...
तन्हाई की खलिश, तो चले जाने वालों की किस्मत में होती है...
रह जाने वाले... तो जी ही लेते हैं...

फिर सोचता हूँ.. क्या ये सिर्फ पत्तों और सितारों की कहानी है... हम भी तो इनकी तरह ही है ना...
जीते हैं हम... एक परिवार का सदस्य बनकर... एक बड़ी सी दुनिया का एक छोटा सा हिस्सा बनकर...

चेहरों और सख्सियत की भीड़ में... हर वक़्त... हर लम्हा... अपनी एक अलग पहचान की तलाश करते... 
बहुत कुछ पाया भी... बहुत कुछ कमाया है... पर खोया है... हर रोज़...
कुछ न कुछ...

भुला दिए जायेंगे हम भी... इन ही सूखे पत्तों की तरह... खो जायेंगे हम भी... हर टूटे सितारे की तरह...
शायद कुछ आंसुओं की हक़दार होगी... हमारी ये जिंदगी... पर कितने दिनों तक?? 

देखना... एक दिन...
हर एक एहसास ख़त्म होगा... हर याद भी हट जायेगी...
एक उम्र भर की दास्ताँ... एक लम्हे में सिमट जायेगी...
अंधेरो से ज्यादा स्याह... वो एक उजालों की रात होगी...
सुबह नम मिलेंगी आँखें... जब ख़्वाबों में मुलाक़ात होगी...

~ ****

जाने क्यों आज पहली बार, अपने ही लफ़्ज़ों के नीचे... अपना नाम लिखने का हौंसला न हुआ...
अपना ही सुखन... बहुत मुख़्तसर सा लगा... बिलकुल इस जिंदगी की तरह... मुख़्तसर...

मैं जिंदगी का खोया पाया, मुझे जानने वालों के आंसुओं से नहीं नापना चाहता...
मैं तो ख़ुशी देना चाहता हूँ... उम्र भर की ख़ुशी.. ग़म कम करना चाहता हूँ... जहां तक हो सके...

फिर ऐसा क्यों लिख गया मैं... शायद... मरने के बाद भी जिंदा रहने की ख्वाहिश रही होगी...
अपनी उम्र से नहीं... अपने काम से... काम से न हो सका अगर तो, अपने नज्मों क नीचे लिखे नाम से...
क्या करूं... इंसान हूँ ना... कभी परफेक्ट नहीं हो सकता...

पर सच क्या है... मैं जानता हूँ... और मैंने जब लिखा है... 
सिर्फ "अपना सच" लिखा है...

~abhi

Marasim ~ Affinity

मरासिम - Affinity

ये लफ्ज़, पहली बार एक ग़ज़ल में सुना था... तब तो मैं इसका मतलब भी नहीं जानता था...
फिर किसी ने बताया... मरासिम का मतलब होता है.. "रिश्ता"
पर शायद... मैं आज भी... इस लफ्ज़ का मतलब नहीं समझ पाया...

अब भी धुंधला सा कुछ याद है वो दिन... बारिश के ही दिनों की बात है...
तुमने बातों-बातों में वो ग़ज़लों की एल्बम मुझे थमा दिया था...
ये कह कर की "इसे सुन लेना"...

वापसी में बारिश शुरू हो गयी थी... घर तक आते-आते मैं काफी भीग गया था...
कहते हैं ना, जब खुदा की मेहर बरसती है... तो कोई भी अनछुआ नहीं रह सकता...
बारिश से बच कर चलने की आदत... न तब थी.. न अब है...

उन दिनों मेरे पास एक हरे रंग का "Walkman" हुआ करता था... उस पे "Tom and Jerry" की एक sticker थी... 
रंग या sticker ज्यादा important नहीं है... पर फिर भी अच्छी तरह याद है...

इंसान का दिमाग भी एक न समझ पाने वाली पहेली है... कभी तो ये जरूरी से जरूरी चीज़ें भी भूल जाता है...
और कभी ये मुख़्तसर सी "Details " भी याद रह जाती है... 
कुछ यादें पानी पे बनी हुई लकीर की तरह होती हैं... जैसे कभी थी ही नहीं...
और कुछ तो... जेहन में ऐसे घर जाती हैं... की उनके सिवा कुछ और सूझता ही नहीं...

फिर मैंने वो सारी ग़ज़लें सुनी... अच्छी भी लगीं... सच पूछो तो उस वक़्त सब कुछ ही अच्छा लग रहा था...
फिजा ही ऐसी थी उस लम्हें में...
काफी सारे रंगों से भरी... काले सफ़ेद बादलों की अजीब सी शक्लों के पीछे से झांकता हुआ नीला आसमान...
सब कुछ हरा-हरा, धुला-धुला सा...
ढलती शाम पे चमकती पानी की वो बूँदें... अभ भी जेहन से हटाये नहीं हटती...

तभी अचानक, सब कुछ थम सा गया... "आँखों से आंसुओं के मरासिम पुराने हैं"...
इसे सुनते ही शायद मैं उस दुनिया से निकलकर हकीकत की तरफ वापस लौटा...
वही हकीकत की दुनिया... जहां सब कुछ "खुबसूरत" नहीं रहता... हमेशा के लिए...

कहते हैं ना, एक लफ्ज़ सही न मिले तो काफिया नहीं मिलता... नज़्म पूरी नहीं होती...
और नज़्म बन जाए... तो हर सुन ने वाले को उसका एक अलग ही मतलब मिलता है...
सबके लिए एक अलग ख़याल...

पर मेरे लिए उस वक़्त तो ये नज़्म अधूरा ही रहा... 
"मरासिम" को समझने का हुनर नहीं था मुझमे...
सच पूछो तो... मैंने समझने की कोशिश ही नहीं की... न अपने रिश्ते को... 
न तुम्हारी ख़ामोशी को...

अपने झूठे ख़्वाबों के पीछे भागता भागता.. मैं काफी दूर निकल आया...
पीछे देखा... तो मैं अकेला ही चले जा रहा था...
साथ चलने वाले कहाँ छूट गए... कब छूट गए... पता ही नहीं चला... 

नासमझी और जूनून का कोहरा... इतना गहरा होता है की अपने आगे कुछ दिखाई नहीं देता...
सही और गलत का फर्क भी नहीं...

मैं शायद... तुम्हारी आँखों में छिपी वो ख्वाहिश... वो जुस्तजू... नहीं देख पाया...
तुम्हारी दी हुई उस नज़्म का मतलब नहीं समझ सका...

अब फिर वही पुराना मौसम लौटा है... तुम नहीं हो... पर जाने कैसे... गलती से...
तुम्हारी आँखों के ख्वाब मेरी आँखों में आ गए हैं...

आंख खुल जाए तो ख्वाब बिखर जातें हैं ना... पर इस बार मैं... तुम्हारे ख़्वाबों को टूटने नहीं दूंगा...
मैंने अपनी आँखें बंद कर ली हैं... हमेशा... हमेशा के लिए...

~abhi