Saturday, December 29, 2012

Saal

एक बेबस सी रात, सहमी सी...
हवा का नाम-ओ-निशाँ तक नहीं था...
साँस लेने को भी कम पड़ जाए...
इतनी कमतर...
पर ज़ेहन में तूफ़ान सा उठा था...
या शायद गुज़रे तूफ़ान की बदहवासी...
अब तक हावी होगी...
चला गया... खिलखिलाकर मुझ पर...
कई दफ़ा टूटे हैं आसमान...
बारहा क़यामत गुज़रती है... 

और हर बार...
बस मैं पीछे रह जाता हूँ...
जैसे किसी टूटे फूटे मकाँ में...
एक पल पल बिखरता इंसान...

हौंसला सा भी कुछ... उभरता है, कभी कभी...
चलो जोड़ लेते हैं... फिर से, सब कुछ...
इस आशियाने को...
हर बिछड़े आशनाओं को...

पर अब मन थक सा गया है...
इन तूफानों को...
कागजों और लफ़्ज़ों में कैद करता करता...
बस अब तो, बिखर के फ़ना हो जाने दो...
सुलगता हुआ न रखो... बुझ जाने दो...
चले जाने दो...
अब तो डायरी के सारे पन्ने ही...
एक जैसे मालूम होते हैं...
सब के सब...
बिलकुल कोरे...

जैसे मेरे हर ख़याल की तरह...
जैसे हर गुज़रे साल की तरह...

~abhi

No comments:

Post a Comment