Friday, February 17, 2012

Ek Engineer Ki Maut

सुबह हो रही थी... 
कुछ पाँच के आस पास का वक़्त रहा होगा... शायद...
काले काँच से नज़रे चुरा कर... 
कुछ उजाले खिड़की के रास्ते अन्दर आने की शिरकत कर रहे थे... 
एक और, काली, स्याह रात... बस कुछ लम्हों में, गुजरने ही वाली थी...
और इधर दम तोड़ रहा था... उस शक्श का धैर्य...

थकी थकी... बोझल सी, उसकी कमज़ोर आँखें...
पॉवर के चश्मे की बैसाखी लिए ही चल रहीं थीं... बहुत सालों से...
विचार-विहीन, खामोश सी वो नज़रें...
स्क्रीन' के निचले कोने में, लगे 'सिस्टम क्लॉक' पे जाकर जम सी गयीं थी...

न जाने कब से जाग रहीं थीं, वो आँखें...
ऐसा लगता था जैसे, कई सदियों का इंतज़ार गुजर चुका हो, उन आँखों से...
पर फिर भी... नींद का नाम-ओ-निशाँ तक न था उन में...
थकान थी... नींद नहीं...
आदत सी हो जाती है न... जागते रह जाने की...

न उसे उजाले का इंतज़ार था... न अँधेरे का खौफ़...
अकेलापन उसे सताता जरुर था... 
पर ज्यादा देर तक नहीं...
तन्हाई तो हम-जोली थी उसकी... जैसे जनम जनम का रिश्ता हो उनका...
जब भी मिल जाते दोनों... मुस्कुरा लेता था वो... 
अक्सर... या शायद, कभी कभी ही...

वज़ह ढूंढ रहा था वो... वहाँ रुके रहने की... 
या वहाँ से निकल कर घर जाने की...
कोई जीने की वज़ह ही मिल जाए... शायद...
कोई काम अब भी अधूरा हो... वो कर लूँ दो पल...
पर नाकामयाब रहा था वो... इस बार भी...
हर बार की तरह...

डरता था वो लोगों से, मतलबी लोगों से... मतलब के यारों से...
सच पूछो तो, सारी दुनिया से...
छिप जाना चाहता था वो... 
कहीं दूर... भाग जाना चाहता था...
इस से पहले की सुबह हो, वो इंसानों का हुजूम जाग जाए...
और घेर ले उसे... तमाशा बना दे उसका...

तमाशा ही तो होता है न... 
हर अलग सा इंसान... 'अलग सी सोच' वाला इंसान...
जो भीड़ में हैं, बस वो ही सही... 
जो थोडा सा भी अलग, वो पूरा गलत...

नब्ज़ चल रही थी बस... 
दिमाग ने तो कब का साथ छोड़ दिया था...
लोग कहते हैं, उम्र के साथ दिमाग मजबूत होता जाता है...
किसी ने ये नहीं बताया के...
दिल तो कमज़ोर का, कमज़ोर ही रह जाता है...

उसका दिल भी तो बहुत कमज़ोर था न...
बहुत ज़ख्म, कई बोझ छुपा रखे थे उसने, सीने में...

एक दिन ज़ख्मों ने विद्रोह किया, और दिल से आज़ाद हो गए...
और वो भी निकल गया... जो मर चुका था...
या यूँ कहें, के अब जा के ही तो, जी उठा था...

~abhi

Saturday, February 11, 2012

Pehchaan

बस कुछ खामोशियाँ ही रह गयीं हैं... 
अब दरमियाँ...
वो बदगुमाँ हो जाये गर तो...
एक तस्लीम भी लाजिमी नहीं समझता...
उसका हर लहजा, एक बेरुखी है...
मेरी हर सांस, एक बेबसी...

मैं ही नादान था...
जो ज़िन्दगी का हाथ पकड़ निकल आया...
वरना मौत आया करती थी दरवाज़े पर...
पुकार लेती थी मुझे, बारहां...
और मैं बस कोई बहाना बना लिया करता था...
अब मालूम हुआ...
बेवफ़ा किसे होना था...

कहते हैं, इस जहां से दूर एक आसमान और भी है...
उस नीली नदी के पार, एक और ही दुनिया हुआ करती है...
एक लम्हा भी वहाँ, सदियों सा गुजरता है...
ये भी सुना है के, सब बिछड़े हुए वहाँ पर मिल जाते हैं...
मैं भी इंतज़ार करता मिलूंगा..
तुम पहचान तो लोगे मुझे...

इन खामोशियों को तब शायद अलफ़ाज़ मिलेंगे...
होंठों पे अधूरी रह गयी वो जुस्तजू...
तब मुकम्मल होगी, शायद...

~abhi