मरासिम - Affinity
ये लफ्ज़, पहली बार एक ग़ज़ल में सुना था... तब तो मैं इसका मतलब भी नहीं जानता था...
फिर किसी ने बताया... मरासिम का मतलब होता है.. "रिश्ता"
पर शायद... मैं आज भी... इस लफ्ज़ का मतलब नहीं समझ पाया...
अब भी धुंधला सा कुछ याद है वो दिन... बारिश के ही दिनों की बात है...
तुमने बातों-बातों में वो ग़ज़लों की एल्बम मुझे थमा दिया था...
ये कह कर की "इसे सुन लेना"...
वापसी में बारिश शुरू हो गयी थी... घर तक आते-आते मैं काफी भीग गया था...
कहते हैं ना, जब खुदा की मेहर बरसती है... तो कोई भी अनछुआ नहीं रह सकता...
बारिश से बच कर चलने की आदत... न तब थी.. न अब है...
उन दिनों मेरे पास एक हरे रंग का "Walkman" हुआ करता था... उस पे "Tom and Jerry" की एक sticker थी...
रंग या sticker ज्यादा important नहीं है... पर फिर भी अच्छी तरह याद है...
इंसान का दिमाग भी एक न समझ पाने वाली पहेली है... कभी तो ये जरूरी से जरूरी चीज़ें भी भूल जाता है...
और कभी ये मुख़्तसर सी "Details " भी याद रह जाती है...
कुछ यादें पानी पे बनी हुई लकीर की तरह होती हैं... जैसे कभी थी ही नहीं...
और कुछ तो... जेहन में ऐसे घर जाती हैं... की उनके सिवा कुछ और सूझता ही नहीं...
फिर मैंने वो सारी ग़ज़लें सुनी... अच्छी भी लगीं... सच पूछो तो उस वक़्त सब कुछ ही अच्छा लग रहा था...
फिजा ही ऐसी थी उस लम्हें में...
काफी सारे रंगों से भरी... काले सफ़ेद बादलों की अजीब सी शक्लों के पीछे से झांकता हुआ नीला आसमान...
सब कुछ हरा-हरा, धुला-धुला सा...
ढलती शाम पे चमकती पानी की वो बूँदें... अभ भी जेहन से हटाये नहीं हटती...
तभी अचानक, सब कुछ थम सा गया... "आँखों से आंसुओं के मरासिम पुराने हैं"...
इसे सुनते ही शायद मैं उस दुनिया से निकलकर हकीकत की तरफ वापस लौटा...
वही हकीकत की दुनिया... जहां सब कुछ "खुबसूरत" नहीं रहता... हमेशा के लिए...
कहते हैं ना, एक लफ्ज़ सही न मिले तो काफिया नहीं मिलता... नज़्म पूरी नहीं होती...
और नज़्म बन जाए... तो हर सुन ने वाले को उसका एक अलग ही मतलब मिलता है...
सबके लिए एक अलग ख़याल...
पर मेरे लिए उस वक़्त तो ये नज़्म अधूरा ही रहा...
"मरासिम" को समझने का हुनर नहीं था मुझमे...
सच पूछो तो... मैंने समझने की कोशिश ही नहीं की... न अपने रिश्ते को...
न तुम्हारी ख़ामोशी को...
अपने झूठे ख़्वाबों के पीछे भागता भागता.. मैं काफी दूर निकल आया...
पीछे देखा... तो मैं अकेला ही चले जा रहा था...
साथ चलने वाले कहाँ छूट गए... कब छूट गए... पता ही नहीं चला...
नासमझी और जूनून का कोहरा... इतना गहरा होता है की अपने आगे कुछ दिखाई नहीं देता...
सही और गलत का फर्क भी नहीं...
मैं शायद... तुम्हारी आँखों में छिपी वो ख्वाहिश... वो जुस्तजू... नहीं देख पाया...
तुम्हारी दी हुई उस नज़्म का मतलब नहीं समझ सका...
अब फिर वही पुराना मौसम लौटा है... तुम नहीं हो... पर जाने कैसे... गलती से...
तुम्हारी आँखों के ख्वाब मेरी आँखों में आ गए हैं...
आंख खुल जाए तो ख्वाब बिखर जातें हैं ना... पर इस बार मैं... तुम्हारे ख़्वाबों को टूटने नहीं दूंगा...
मैंने अपनी आँखें बंद कर ली हैं... हमेशा... हमेशा के लिए...
~abhi