Sunday, July 25, 2010

Apna Sach ~ Reality

अपना सच 

मैंने खुद को जलते हुए देखा है...
वीरान... अजनबी सी... राहों पे चलते हुए देखा है...

इन रास्तों पे बिछी हुई... ये पीले, सूखे पत्तों की बेनूर सी चादर...
मेरे पैरों तलें कुचले जाते हुए ये पत्तें, एक अजीब सी आवाज़ करते हैं...
जैसे दर्द से तड़प रहें हो...

नहीं... ऐसा नहीं है शायद... ये तो अब बेजान हो चुके हैं... ये दर्द महसूस नहीं कर सकते...
हर एहसास से दूर हो चुके हैं ये सब...

सोचता हूँ... कभी ये सारे पत्तें हरे रहे होंगे... कितना मुस्कुराया होगा वो दरख़्त इन्हें पाकर...
जाने कितने दिनों तक... ये उस पेड़ की जान और पहचान बनकर रहे होंगे...

पर आज अपना अस्तित्व खो चुके हैं... क्या रोया होगा वो पेड़ इन्हें खोकर...
क्या रोता है आस्म़ा कभी... अपने एक सितारे के टूटने पर...

शायद हाँ... किसी अपने के खो जाने पर दर्द तो होता है... ना...
पर ये जख्म ता उम्र, नहीं रहते... भर जाते हैं... कुछ दिनों बाद... अपने आप...

शायद नहीं... इतनी भीड़ में एक कोई खो भी गया तो क्या फर्क पड़ता है...
बहुत पत्तें हैं... अभी दरख़्त की बाहों में... बहुत सितारे अब भी आसमान को सजाते रहेंगे...
तन्हाई की खलिश, तो चले जाने वालों की किस्मत में होती है...
रह जाने वाले... तो जी ही लेते हैं...

फिर सोचता हूँ.. क्या ये सिर्फ पत्तों और सितारों की कहानी है... हम भी तो इनकी तरह ही है ना...
जीते हैं हम... एक परिवार का सदस्य बनकर... एक बड़ी सी दुनिया का एक छोटा सा हिस्सा बनकर...

चेहरों और सख्सियत की भीड़ में... हर वक़्त... हर लम्हा... अपनी एक अलग पहचान की तलाश करते... 
बहुत कुछ पाया भी... बहुत कुछ कमाया है... पर खोया है... हर रोज़...
कुछ न कुछ...

भुला दिए जायेंगे हम भी... इन ही सूखे पत्तों की तरह... खो जायेंगे हम भी... हर टूटे सितारे की तरह...
शायद कुछ आंसुओं की हक़दार होगी... हमारी ये जिंदगी... पर कितने दिनों तक?? 

देखना... एक दिन...
हर एक एहसास ख़त्म होगा... हर याद भी हट जायेगी...
एक उम्र भर की दास्ताँ... एक लम्हे में सिमट जायेगी...
अंधेरो से ज्यादा स्याह... वो एक उजालों की रात होगी...
सुबह नम मिलेंगी आँखें... जब ख़्वाबों में मुलाक़ात होगी...

~ ****

जाने क्यों आज पहली बार, अपने ही लफ़्ज़ों के नीचे... अपना नाम लिखने का हौंसला न हुआ...
अपना ही सुखन... बहुत मुख़्तसर सा लगा... बिलकुल इस जिंदगी की तरह... मुख़्तसर...

मैं जिंदगी का खोया पाया, मुझे जानने वालों के आंसुओं से नहीं नापना चाहता...
मैं तो ख़ुशी देना चाहता हूँ... उम्र भर की ख़ुशी.. ग़म कम करना चाहता हूँ... जहां तक हो सके...

फिर ऐसा क्यों लिख गया मैं... शायद... मरने के बाद भी जिंदा रहने की ख्वाहिश रही होगी...
अपनी उम्र से नहीं... अपने काम से... काम से न हो सका अगर तो, अपने नज्मों क नीचे लिखे नाम से...
क्या करूं... इंसान हूँ ना... कभी परफेक्ट नहीं हो सकता...

पर सच क्या है... मैं जानता हूँ... और मैंने जब लिखा है... 
सिर्फ "अपना सच" लिखा है...

~abhi

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