Saturday, February 11, 2012

Pehchaan

बस कुछ खामोशियाँ ही रह गयीं हैं... 
अब दरमियाँ...
वो बदगुमाँ हो जाये गर तो...
एक तस्लीम भी लाजिमी नहीं समझता...
उसका हर लहजा, एक बेरुखी है...
मेरी हर सांस, एक बेबसी...

मैं ही नादान था...
जो ज़िन्दगी का हाथ पकड़ निकल आया...
वरना मौत आया करती थी दरवाज़े पर...
पुकार लेती थी मुझे, बारहां...
और मैं बस कोई बहाना बना लिया करता था...
अब मालूम हुआ...
बेवफ़ा किसे होना था...

कहते हैं, इस जहां से दूर एक आसमान और भी है...
उस नीली नदी के पार, एक और ही दुनिया हुआ करती है...
एक लम्हा भी वहाँ, सदियों सा गुजरता है...
ये भी सुना है के, सब बिछड़े हुए वहाँ पर मिल जाते हैं...
मैं भी इंतज़ार करता मिलूंगा..
तुम पहचान तो लोगे मुझे...

इन खामोशियों को तब शायद अलफ़ाज़ मिलेंगे...
होंठों पे अधूरी रह गयी वो जुस्तजू...
तब मुकम्मल होगी, शायद...

~abhi

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