सुबह हो रही थी...
कुछ पाँच के आस पास का वक़्त रहा होगा... शायद...
काले काँच से नज़रे चुरा कर...
कुछ उजाले खिड़की के रास्ते अन्दर आने की शिरकत कर रहे थे...
एक और, काली, स्याह रात... बस कुछ लम्हों में, गुजरने ही वाली थी...
और इधर दम तोड़ रहा था... उस शक्श का धैर्य...
थकी थकी... बोझल सी, उसकी कमज़ोर आँखें...
पॉवर के चश्मे की बैसाखी लिए ही चल रहीं थीं... बहुत सालों से...
विचार-विहीन, खामोश सी वो नज़रें...
स्क्रीन' के निचले कोने में, लगे 'सिस्टम क्लॉक' पे जाकर जम सी गयीं थी...
न जाने कब से जाग रहीं थीं, वो आँखें...
ऐसा लगता था जैसे, कई सदियों का इंतज़ार गुजर चुका हो, उन आँखों से...
पर फिर भी... नींद का नाम-ओ-निशाँ तक न था उन में...
थकान थी... नींद नहीं...
आदत सी हो जाती है न... जागते रह जाने की...
न उसे उजाले का इंतज़ार था... न अँधेरे का खौफ़...
अकेलापन उसे सताता जरुर था...
पर ज्यादा देर तक नहीं...
तन्हाई तो हम-जोली थी उसकी... जैसे जनम जनम का रिश्ता हो उनका...
जब भी मिल जाते दोनों... मुस्कुरा लेता था वो...
अक्सर... या शायद, कभी कभी ही...
वज़ह ढूंढ रहा था वो... वहाँ रुके रहने की...
या वहाँ से निकल कर घर जाने की...
कोई जीने की वज़ह ही मिल जाए... शायद...
कोई काम अब भी अधूरा हो... वो कर लूँ दो पल...
पर नाकामयाब रहा था वो... इस बार भी...
हर बार की तरह...
डरता था वो लोगों से, मतलबी लोगों से... मतलब के यारों से...
सच पूछो तो, सारी दुनिया से...
छिप जाना चाहता था वो...
कहीं दूर... भाग जाना चाहता था...
इस से पहले की सुबह हो, वो इंसानों का हुजूम जाग जाए...
और घेर ले उसे... तमाशा बना दे उसका...
तमाशा ही तो होता है न...
हर अलग सा इंसान... 'अलग सी सोच' वाला इंसान...
जो भीड़ में हैं, बस वो ही सही...
जो थोडा सा भी अलग, वो पूरा गलत...
नब्ज़ चल रही थी बस...
दिमाग ने तो कब का साथ छोड़ दिया था...
लोग कहते हैं, उम्र के साथ दिमाग मजबूत होता जाता है...
किसी ने ये नहीं बताया के...
दिल तो कमज़ोर का, कमज़ोर ही रह जाता है...
उसका दिल भी तो बहुत कमज़ोर था न...
बहुत ज़ख्म, कई बोझ छुपा रखे थे उसने, सीने में...
एक दिन ज़ख्मों ने विद्रोह किया, और दिल से आज़ाद हो गए...
और वो भी निकल गया... जो मर चुका था...
या यूँ कहें, के अब जा के ही तो, जी उठा था...
~abhi
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