Tuesday, October 11, 2011

Hawaa

ये संगदिल सी... सर्द हवा...
बदन पे लगते ही... रूह को भी ज़ख्म दे जाती है...
दरख्तों से गिरते ये पत्ते... बेरंग से... बेजान हो चुके...
बिखरते चले जाते हैं...
अपनी आपबीती बयाँ करने की कोशिश करते हुए शायद...
पर नाकाम रह जाते हैं...
बेरहम सबा फिर जीत जाती है... हर बार की तरह...

पहले भी महसूस किया है... इस हवा को... ऐसे मंज़र को...
एक ख्याल... अचानक ही ज़हन को डरा देता है...
क्या होने वाला है... इस आने वाले लम्हे में... न जाने क्या खो जाएगा...
न जाने क्या छीन ले जायेगी ये हवा... इस बार...

जेब में पड़ा हुआ अपना ही फ़ोन... टाइम बम की तरह महसूस होता है...
ये दुआ मांगी... की बस किसी तरह...
इस बार... इस फ़ोन कोई आवाज़ न आये...
हिम्मत जुटा कर... ये कदम फिर चल पड़ते हैं...
उन्ही वीरान रास्तों में... अपना घरौंदा तलाश करते हुए...

अचानक महसूस हुआ... ज़माना बहुत आगे निकल आया है...
अब तो बुरी खबर 'फेसबुक' से भी मिल जाया करती है...
और वही हो जाता है... जो नहीं होना था शायद...

एक लम्हे को ऐसे ही ख़त्म होना था... एक दास्ताँ बस यही तक थी... शायद...
शायद... इस जुस्तजू को भी सीने में ही दफ़न रह जाना था...
कितना सच गुनगुना गया वो शक्श...

" मैं फिजाओं में बिखर जाउंगा खुशबू बनकर...
रंग होगा... न बदन होगा.. न चेहरा होगा... "

~abhi

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