जाने कैसा ख्वाब था... जगा के चला गया...
एक लम्हे भर को ही, तो आँख लगी थी...
ऐसा लगा...
सीने से कोई तूफ़ान सा गुजरा हो...
और फिर...
एक लम्बी खामोशी...
ज़ेहन में कैद होने से पहले ही... मंज़र बिखर गए...
बस कुछ धुंआ सा याद रहा...
शायद एक पहचानी सी शक्ल... और...
साँसों के ताने बाने में लिपटी चंद सिसकियाँ...
ज़िन्दगी और ख्वाब जुड़े हुए से लगते हैं...
इनके बारे में जितना सोचो...
ये उतनी ही उलझी हुई जान पड़ती हैं...
और धुंधली होती जाती हैं...
वो शक्ल भी गुम होती गयी... और सिसकियाँ खामोश...
एक अजीब सी उम्मीद भी रहती है..
वो चेहरा ही मुझे पहचान ले कभी...
कभी तो मुस्कुरा के मिले... या हँसता हुआ... शायद...
फिर सो पाने का जी न हुआ...
यूँ लगा...
शायद ये रात भी आँखों में ही गुजरेगी...
~abhi
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